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जीवन का अस्तित्व / मैथिलीशरण गुप्त

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जीव, हुई है तुझको भ्रान्ति;
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

अरे, किवाड़ खोल, उठ, कब से
मैं हूँ तेरे लिए खड़ा,
सोच रहा है क्या मन ही मन
मृतक-तुल्य तू पड़ा पड़ा।
बढ़ती ही जाती है क्लान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

अपने आप घिरा बैठा है
तू छोटे से घेरे में,
नहीं ऊबता है क्या तेरा
जी भी इस अन्धेरे में ?
मची हुई है नीरव क्रान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

द्वार बन्द करके भी तू है
चैन नहीं पाता डर से,
तेरे भीतर चोर घुसा है,
उसको तो निकाल घर से।
चुरा रहा है वह कृति-कान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

जिस जीवन के रक्षणार्थ है
तूने यह सब ढंग रचा,
होकर यों अवसन्न और जड़
वह पहले ही कहाँ बचा ?
जीवन का अस्तित्व अशान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !