भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऊब के नीले पहाड़ / लीना मल्होत्रा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 5 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीना मल्होत्रा |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितना कुछ है मेरे और तुम्हारे बीच इस ऊब के अलावा
यह ठीक है तुम्हारे छूने से अब मुझे कोई सिहरन नही होती
और एक पलंग पर साथ लेटे हुए भी हम अक्सर एक दूसरे के साथ नही होते
मै चाहती हूँ कि तुम चले जाया करो अपने लम्बे-लम्बे टूरों पर
तुम्हारा जाना मुझे मेरे और क़रीब ले आता है
तुम्हारे लौटने पर मैंने सँवरना भी छोड़ दिया है
तुम्हारी निग़ाहों से नही देखती अब मै ख़द को
यह कितनी अजीब बात है कि ये धीरे-धीरे मरता हुआ रिश्ता
कब पूरी तरह मर जाएगा इसका अहसास भी नही होगा हमें
लेकिन फिर भी
तुम्हारी अनुपस्थिति में जब किसी की बीमारी की ख़बर आती है
तो मुझे तुम्हारे सुन्न पड़ते पैरों की चिंता होने लगती है

कोई नया पल जब मेरी ज़िन्दगी में प्रस्फुटित होता है
तो बहुत दूर से ही पुकार के मै तुम्हे बताना चाहती हूँ
कि आज कुछ ऐसा हुआ है कि मुझे तुम्हारा यहाँ न होना खल रहा है
कि तुम ही हो जिससे बात करते वक़्त मैं नही सोचती की यह बात मुझे कहनी चाहिए या नहीं.

और जब मुझे ज्वर हो आता है
तुम्हारा हर मिनट फ़ोन की घण्टी बजाना और मेरा हाल पूछना
शायद वह ज्वर तुम्हारा ध्यान खींचने का बहाना ही होता था शुरू में
लेकिन अब
इसकी मुझे आदत हो गई है
और मै ढूँढ़ ही नही पाती
वो दवा
जो तुम रात के दो बजे भी घर के किसी कोने से ढूँढ़ के ले आते हो मेरे लिए

और सिर्फ़ तुम ही जानते हो इस पूरी दुनिया में
कि सर्दियों में मेरे पैर सुबह तक ठण्डे ही रहते हैं
कि मुझे बहुत गर्म चाय ही बहुत पसन्द है
कि आइसक्रीम खाने के बाद मै ख़ुद को इतनी कैलरीज खाने के लिए कोसूँगी ज़रूर
कि तुम्हारे ड्राईविंग करते हुए फ़ोन करने से मैं कितना चिढ़ जाती हूँ
कि जब तुम कहते हो बस, अब मै मर रहा हूँ
तो मै रूआँसी नही होती
उल्टा कहती हूँ तुमसे
५० लाख का इंशोरेंस करवा लो ताकि मैं बाक़ी ज़िन्दगी आराम से गुज़ार सकूँ
और फिर कितना हँसते हैं हम दोनों
इस तरह मौत से भी नही डरता ये हमारा रिश्ता
तो फिर ऊब से क्या डरेगा ??

ये हमारे बीच का कम्फ़र्ट-लेवल है न
यह उस ऊब के बाद ही पैदा होता है
क्योंकि
किसी को बहुत समझ लेना भी जानलेवा होता है प्रिय
कितनी ही बाते हम इसलिए नही कर पाते कि हम जानते होते हैं
कि क्या कहोगे तुम इस बात पर
और कैसे पटकूँगी मैं बर्तन जो तुम्हारा बी० पी० बढ़ा देगा
और इस तरह
ख़ामोशी के पहाड़ों को नीला रंगते हुए ही दिन बीत जाता है.
और उस पहाड़ का नुकीला शिखर हमारी नज़रो की छुरियों से डरकर भुरभुराता रहता है

और जब तुम नही होते शहर में
मैं कभी सुबह की चाय नही पीती
और अख़बार भी यूँ ही तह लगा पड़ा रहता है
खाना भी एक समय ही बनाती हूँ
और
और वह नीला रंगा पहाड़ धूसरित रंग में बदल जाता है
फ़ोन पर चित्र नही दिखते इसलिए जब शब्द आवश्यक हो जाते हैं
और तुम
पूछते हो क्या कर रही हो
मैं कहती हूँ
बॉय-फ्रेंड की हंटिंग के लिए जा रही हूँ
और
तुम शुभकामनाएँ देते हो
और कहते हो की इस बार कोई अमीर आदमी ही ढूँढना

ये डार्क ह्यूमर हमारे रिश्ते को कितनी शिद्दत से बचाए रखता है
और इस ऊब में उबल-उबल कर कितना गाढ़ा हो गया है यह हमारा रिश्ता