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दोस्ती दुश्मनी सलामत हो / प्रेमरंजन अनिमेष

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 (शरद रंजन शरद की एक ग़ज़ल की ज़मीन पर*)

दोस्ती दुश्मनी सलामत हो*
सबकी नेकी बदी सलामत हो

दीन-ओ-ईमां के कैसे ये झगड़े
हो ख़ुदा और ख़ुदी सलामत हो

बाद मुद्दत जो अपने घर लौटूँ
इसमें बहती नदी सलामत हो

ज़हन का क्या है कर दे दीवाना
यारो ज़िन्दादिली सलामत हो

इसने ही तो मिलाया इतनों से
दिल की आवारगी सलामत हो

पीर कोई फिरे नहीं दर से
अपनी फ़ाकाकशी सलामत हो

जी रहा हूँ बिछड़ के मैं भी तो
तू भी राजी ख़ुशी सलामत हो

स्याह आँखों के गहरे कोरों में
भोर की भैरवी सलामत हो

मौत मँडरा रही है हर जानिब
फिर भी ये ज़िन्दगी सलामत हो

जिसमें उम्मीद पल रही कल की
रंग वो जामुनी सलामत हो

हर तरफ़ घुप अन्धेरा है 'अनिमेष'
रूह की रोशनी सलामत हो