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ट्रेन चल रही है / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
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मैं एक पहाड़ बना रहा
तुम एक गाँव बने रहे
हम इस तरह गाँव और शहर के दो दोस्त हुए
वक़्त ने हमारे बीच से गुज़र जाना मंज़ूर किया
वह नदी बना और हममें से होकर बहने लगा
मेरे सपने पेड़ बन कर उग आए
वक़्त बहता रहा पेड़ों ने अपने झाड़ फैलाए
छा~मव दी और फल गिराए
मेरे विचारों ने दूब का रूप धर लिया
मेरी शुभकामनाएँ फूल बन गर्इं
वक़्त की नदी की तरह बहते हुए
सब कुछ हरियाली में मिल गया
कुछ दिनों बाद मैं शहर आ गया
नदी सूख गई थी और
गाँव भी किनारों पर छाँव में नहीं रुका
पहाड़ में से एक सड़क गुजर गई
गाँव की नदी पर एक पुल उभर आया
मैं पहाड़ हूँ और नदी में देखता हूँ अपना चेहरा
नदी सूख गई और सारा गाँव पुल से निकल रहा है