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जागते रहो / भारत भूषण अग्रवाल
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डूबता दिन, भीगती-सी शाम
बन्द कर दो कान,
लो विश्राम ।
यह तिमिर की शाल
ओढ़ लो वसुधे ! न सिकुड़े शीत से यह लाल,
जग का बाल ।
वलय की खनकार,
दीप बालो री सुहागिनी ! जग उठे गृह-द्वार
बन्दनवार !
किन्तु साथी ! देख
हम न सोएँगे, हमारा कार्य है अवशिष्ट
अपनी प्रगति का अब भी अधूरा लेख ।
जागरण, फिर जागरण ही है हमारा इष्ट !
लो, क्षितिज के पास --
वह उठा तारा, अरे ! वह लाल तारा, नयन का तारा हमारा
सर्वहारा का सहारा
विजय का विश्वास ।