Last modified on 19 नवम्बर 2007, at 22:54

चाँदी के तार / विनोद दास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 19 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद दास |संग्रह=खिलाफ हवा से गुजरते हुए / विनोद दास }} ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह रोज़
एक पुराने संदूक से
नए और तह किये कपड़े निकालती

थोड़ी देर उसे हाथ से सहलाने के बाद
वह सोचती कि इसे उस दिन पहनेगी
फिर उसी संदूक में आहिस्ता से
उन कपड़ों को तहाकर रख देती

जब होती कहीं आस-पड़ोस में शादी
उसको चढ़ आता है बुख़ार
और भयकर दर्द से
उसकी देह ऐंठने लगती

वह सोने से पहले
हर रात देखती एक सजा घोड़ा
जो आकाश से उतरता था
और उसे बहुत दूर ले जाता था

एक दिन
उसने दर्पण में देखे
अपने सिर में कई चाँदी के तार
उस रात घोड़ों के टापों ने
उसे रौंद डाला।