भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कस्बे का कवि / प्रभात

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:13, 7 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 वह कोई अधिकारी नहीं है कि लोग
जी सर, हां सर कहते हुए कांपें उसके सामने
नेता नहीं है कि इंसानों का समूह
पालतू कुत्तों के झुण्ड में बदल जाए उसे देखते ही

ब्याज पर धन देकर
ज़िन्दगी नहीं बख्श सकता वह लोगों को
कि लोगों के हाथ गिड़गिड़ाते हुए मुड़ें

वह तो एक छोटा-सा कवि है इस कस्बे का
रहता है बस स्टॉप की कुर्सियों
बिजली के खम्भे-सा
टीन का बोर्ड अजनबियों को
पते बताता हुआ
अपने होने को कस्बे से साझा करते हुए
सुबह-शाम सड़क किनारे के पेड़ों-सा दिखता

साइकिल पर दौड़ता प्लम्बर
ठहर जाता है उसे देखकर
अरे यार नहीं आ सका
नल की टोंटी ठीक करने
दरअसल क्या है न
कि मोटे कामों से ही फुर्सत नहीं मिलती
पर आऊंगा किसी रोज
अभी किसी तरह काम चला

प्रेमी जोड़े जिन्होंने कविताएं पढ़ी हैं उसकी
देखा है उसे डाकघर की तरफ आते-जाते
साल में एकाध जोड़े उनमें से
उसकी कविताओं की खिड़की से कूद कर
सुरक्षित निकल जाते हैं कस्बे से