सुमिरण का अंग / कबीर
भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर' सुमिरण सार ॥1॥
भावार्थ - हरि का नाम-स्मरण ही भक्ति है और वही भजन सच्चा है ; भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं केवल दिखावा है, और अपार दुःख की हेतु भी । पर स्मरण वह होना चाहिए मन से, बचन से और कर्म से, और यही नाम-स्मरण का सार है !
`कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई ।
राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होई ॥2॥
भावार्थ - मैं हमेशा कहता हूँ, रट लगाये रहता हूँ, सब लोग सुनते भी रहते हैं - यही कि राम का स्मरण करने से ही भला होगा, नहीं तो कभी भला होनेवाला नहीं । पर राम का स्मरण ऐसा कि वह रोम-रोम में रम जाय ।
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई ,जित देखौं तित तूं ॥3॥
भावार्थ - तू, ही है, तू ही है' यह करते-करते मैं तू ही हो गयी, हूँ' मुझमें कहीं भी नहीं रह गयी । उसपर न्यौछावर होते-होते मैं समर्पित हो गयी हूँ । जिधर भी नजर जाती है उधर तू-ही-तू दीख रहा है ।
`कबीर' सूता क्या करै, काहे न देखै जागि ।
जाको संग तैं बीछुड्या, ताही के संग लागि ॥4॥
भावार्थ - कबीर अपने आपको चेता रहे हैं, अच्छा हो कि दूसरे भी चेत जायं । अरे, सोया हुआ तू क्या कर रहा है ? जाग जा और अपने साथियों को देख, जो जाग गये हैं । यात्रा लम्बी है, जिनका साथ बिछड़ गया है और तू पिछड़ गया है, उनके साथ तू फिर लग जा ।
जिहि घटि प्रीति न प्रेम-रस, फुनि रसना नहीं राम ।
ते नर इस संसार में, उपजि खये बेकाम ॥5॥
भावार्थ - जिस घट में, जिसके अन्तर में न तो प्रीति है और न प्रेम का रस । और जिसकी रसना पर रामनाम भी नहीं - इस दुनिया में बेकार ही पैदा हुआ वह और बरबाद हो गया ।
`कबीर' प्रेम न चषिया, चषि न लीया साव ।
सूने घर का पाहुंणां , ज्यूं आया त्यूं जाव ॥6॥
भावार्थ - कबीर धिक्कारते हुए कहते हैं - जिसने प्रेम का रस नहीं चखा, और चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाय ? वह तो सूने घर का मेहमान है, जैसे आया था वैसे ही चला गया !
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्यां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप ॥7॥
भावार्थ - प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है, उसे क्या कहा जाय ? वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना कोई गति नहीं ।
लूटि सकै तौ लूटियौ, राम-नाम है लूटि ।
पीछैं हो पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि ॥8॥
भावार्थ - अगर लूट सको तो लूट लो, जी भर लूटो--यह राम नाम की लूट है । न लूटोगे तो बुरी तरह पछताओगे, क्योंकि तब यह तन छूट जायगा ।
लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 9॥
भावार्थ - रास्ता लम्बा है, और वह घर दूर है, जहाँ कि पहुँचना है । लम्बा ही नहीं, उबड़-खाबड़ भी है । कितने ही बटमार वहाँ पीछे लग जाते हैं । संत भाइयों, बताओ तो कि हरि का वह दुर्लभ दीदार तब कैसे मिल सकता है ?
`कबीर' राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥10॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं- अमृत-जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा ले । राम से तेरा मन-बिछुड़ गया है, उससे वैसे ही मिल जा , जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्धि-से-सन्धि मिलाकर एक कर लिया जाता है ।