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नीमों में कल्ले / गुलाब सिंह
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फूट रहे नीमों में कल्ले
फिर सींकें मोड़ कर
रिया सिया
रच-रच बनवायेंगी छल्ले।
घुँघरू बिन पायल-
पाजेब पड़ी पाँवों में
दो पल के सुख पहने
जनम के अभावों ने
खुशियों से गूँज उठे
गाँव-घर-मुहल्ले।
बातों ही बातों में
महल बना एक किता,
साथ-साथ उठ बैठे
हँसते माता-पिता,
देहरी पर बहू जैसे
बैठी तिनतल्ले।
अब की फिर गम खायें
नथ-झुलनी-झुमके
बौंड़र के तिनके
तन छुएँ घूम-घूम के
गरदीली आँखों में
सपनों के बुल्ले।