जाड़े की रात / जीवनानंद दास
जाड़े की ऐसी ही रातों में, आता है मेरे मन
में ख़याल मृत्यु का ।
बाहर पड़ रही है शायद ओस या फिर रहे हैं पत्ते झर
या फिर आवाज़ है यह बूढ़े उल्लू की — वह
भी है झरते हुए पत्तों-सी — ओस जैसी ।
शहर जहाँ होता है ख़त्म और शुरू जहाँ होता
है गाँव — वहीं से सुन पड़ती है
हुँकार सिंह की — सरकस के व्यथित सिंह की हुँकार —
कूकती है इधर कोयल सहसा — बीच में रात के :
कहती है मानो वह — आया था वसन्त; आएगा फिर से
वह एक दिन ।
बूढ़ी हुई हैं लेकिन अनगिनती कोयलें देखते-देखते
मेरे; मैं भी तो हूँ बूढ़ी कोयल-सा !
फिर से हुँकारता है सिंह —
सरकस का व्यथित सिंह — चिरयुवा, तन्द्र, अन्धेरे
में डूबा हुआ, अन्धा सिंह !
चारों ओर फैले समुद्र में; ढूँढ़ते हुए अवशेष जीवन
के — खो जाता है सब कुछ — मरी हुई मछली
की पूँछ में लिपटे हुए शैवाल — कुहरे में, अन्तहीन
फैले हुए जल में ।
कभी नहीं
कभी नहीं पाएगा सिंह
अब जंगल को ।
कोयल का कण्ठ एक टूटी मशीन-सा
जर्जर हो जाएगा — टुकड़े-टुकड़े हो कर
बिखरेगा फैले हुए नीचे विशाल
चुम्बकीय पर्वत पर !
विस्मृति की धारा में लिपटे हुए
ओ मेरे संसार !
सो जाओ करवट ले,
किस दिन, किसी दिन भी, ढूँढ़ नहीं पाओगे
अब कोई अचरज और !
यह कविता ’महापृथिवी’ संग्रह से)