भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यहाँ लेटी है सरोजिनी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:37, 13 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=प्रयाग शुक...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहाँ लेटी है सरोजिनी; (कह नहीं सकता
अब भी लेटी है क्या) लेटी रही है बहुत
दिनों तक — फिर शायद उठकर चली गई है
दूर — बादलों के बीच —
वहीं, जहा होता है अँधेरा ख़त्म, झिलमिल करता
है प्रकाश !

चली ही गई है सरोजिनी ?
बिना सीढ़ी के; चिड़ियों के पंखों के बिना ?
या फिर वह धरती की ज्यामिति का ढूह है आज !
कहती है प्रेत-छाया ज्यामिति की — मुझे तो नहीं
मालूम !

शाम को खड़ा है प्रकाश एक केसरिया रंग
का लगकर आकाश से —
अदृश्य एक बिजली-सा;
चेहरे पर है जिसके एक चतुर धूर्त हँसी !