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पांव की नस / राजेश जोशी

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पांव की कोई नस अचानक चढ़ जाती है
इतना तेज दर्द कि पांव की मामूली सी जुम्बिश भी
इस नामुराद को बर्दाश्त नहीं

सोचता हूं और भी तो तमाम नसें हैं शरीर में
सलीके से जो रही आती हैं हमेशा अपनी अपनी जगह
एक यही कमज़र्फ़ क्यों वक्त बेवक्त ऐंठ कर
मेरा सुख चैन छीन लेती है

पैरों के साथ बरती गई न जाने कौन-सी लापरवाही का
बदला ले रही थी वह नस
मुझे लगा अपनी अकड़ती आवाज़ में कह रही हो जैसे
कि दिनभर बेरहम जल्लादों की तरह थकाया तुमने पैरों को
और बदले में क्या दिया?
दिनभर हम्मालों की तरह भार ढोया पैरों ने तुम्हारे शरीर का
कितनी सड़कें नापीं,
खाक झानी कितनी आड़ी टेढ़ी गलियों की
कितनी भटकनों की स्मृतियां दर्ज इनके खाते में

इन्होंने जहां चाहा वहां पहुंचाया तुमको
घंटों जूतों में कैद रखा तुमने इन्हें
थकान से चूर तुम तो सोते समय भी
पैरों को ठंडे पानी से धोना भूल गये
और पड़ गये बिस्तर पर

खींच कर अपना हाथ उंगलियों से टोता हूं नस को
धीरे धीरे सहलाता हूं, दबाता हूं
जातियों के जन्म की कोई मनुवादी धारणा
कौंधती है दिमाग में
इतनी पीड़ा कि फूट पड़ती है हंसी और कराह एक साथ
ओह! पिण्डली की एक नस ने हिला कर रख दिया है
मेरे पूरे वजूद को
कितना असमर्थ कर दिया है इसने
पांव को उतार कर ज़मीन पर टिकाना भी नामुमकिन
कमबख़्त एक नस ने जरा सा ऐंठकर
हर मुमकिन को कर दिया
नामुमकिन!