भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:14, 22 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेन्द्र दत्त शर्मा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई ।
मीनार इस तरह हिली, बुनियाद डर गई ।

हम सोचते ही रह गए, कैसे ये सब हुआ,
निकली कहाँ से बात, कहाँ तक ख़बर गई !

तुम क्या गए, शहर की ही रौनक हवा हुई,
पीली उदासियाँ थीं, जहाँ तक नज़र गई ।

हमने तो हँस के हाल ही पूछा था आपसे,
इतनी-सी बात आपको इतनी अखर गई !

मैंने ख़ुशी को पास बुलाया था प्यार से,
लेकिन 'वो' मेरे पास से होकर गुज़र गई ।

अपनों की बात आपने समझी नहीं कभी,
ग़ैरों की बात कैसे जेहन में उतर गई !