Last modified on 25 फ़रवरी 2014, at 12:29

अलगाव / बरीस पास्तेरनाक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:29, 25 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक |अनुवादक=अमृता भ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देहरी से एक आदमी अन्दर देखता है
वह अपना घर पहचान नहीं पाता ।
उसका जाना भागने की तरह था
और हर तरफ़ तबाही के चिह्न थे ।

सब कमरे अस्तव्यस्त थे ;
आँसू और दुखता सिर
उसे रोक रहे थे देखने से
उसकी बरबादी का परिमाण ।

सुबह से उसके कानों में गर्जना थी ।
वह जाग रहा है या स्वप्न देख रहा है ?
क्यों समुद्र का विचार
उसके दिमाग़ में पछाड़ खाता रहता है ?

जब खिड़की पर हो रहे हिमपात से
छिप जाता है यह विशाल बड़ा संसार,
तब दुख की निराशा
और भी अधिक हो जाती है समुद्र के मरू की तरह ।

वह उसके इतनी करीब थी और इतनी प्रिय
हर रूप वैशिष्टय में
जैसे कि किनारे निकट होते हैं समुद्र के
हर तरंग भंग में ।

जैसे तूफ़ान के बाद
समुद्री-फेन सरकण्डों को जलमग्न कर देता है,
वैसे ही उसके हृदय में
उसकी छवि डूब गई है ।

संकट के बरसों में
जब जीवन अकल्पनीय था
समुद्र के तल से नियति का प्रवाह
उसे उस तक बहा ले गया ।

विघ्न अनगिनत थे,
पर ख़तरों से बाल-बाल बचाकर
प्रवाह ने उसे पहुँचा दिया
किनारे तक ।

अब वह चली गई है ;
अनिच्छा से ही सम्भवत: ।
यह अलगाव उन्हें खा लेगा,
दुःख उन्हें कुतरेगा, हड्डियों को और सब कुछ को ।

वह अपने चारों तरफ़ देखता है ।
जाने के समय
उसने हर चीज़ ऊपरा-नीचे की थी,
दराज की पेटी से हर चीज़ बाहर फेंकी थी ।

शाम होने तक वह घूमता रहा
दराजों में वापिस रखता हुआ
सामान के बिखरे हुए टुकड़ों को
काटने के लिए रखे गए नमूनों को,

और सिलाई के टुकड़े में अभी तक अटकी
सुई से अपने को छेदता हुआ,
अचानक वह उसे देखता है
और चुपचाप रोता है ।