चमत्कार / बरीस पास्तेरनाक
वह बेथनी से जेरुसलम जा रहा था
पूर्वज्ञान के दुःख से क्लान्त ।
पहाड़ी प्रदेश की कँटीली झाड़ियों को धूप ने झुलसा दिया था,
पास की झोंपड़ी पर से धुआँ नहीं उठ रहा था ;
हवा गरम थी, सरकण्डे निश्चल,
और निश्चल था ’मृत सागर’ का मौन ।
अपने दुःख की तिक्तता में
जो समुद्र के खार से मिलती थी
वह चल रहा था बादलों के मन्द अनुसरण के साथ ।
धूलभरा मार्ग उसे नगर तक ले गया
किसी की सराय में जमा हुए शिष्यों की सभा में ।
वह अपने विचारों में इतने गहरे डूबा हुआ था,
उदास क्षेत्र नागदौन की तरह गन्धाने लगा ।
हर चीज़ स्तब्ध थी ; वह खड़ा था बीच में, अकेला ।
निस्तब्ध प्रदेश एक चादर की तरह सपाट था ।
हर चीज़ अपमिश्रित हो गई : गरमी और मरुस्थल,
गिरगिट झरने और चश्मे ।
निकट ही स्थित था एक अंजीर वृक्ष,
फलहीन, टहनियों और पत्तियों के सिवा कुछ नहीं ।
उसने उससे कहा : मुझे तुमसे क्या सुख है ?
तुम किस लाभ के लिए हो, एक खम्भे की तरह खड़े हुए ?
’मैं भूखा और प्यासा हूँ और तुम बंजर हो,
और तुमसे मिलना कणाश्म प्रस्तर की तरह असुखकर है ।
कितने अक्षम हो तुम, और कितने निराशाजनक !
तुम ऐसे ही रहोगे अन्त काल तक ।’
विद्युत से आहत विद्युत चालक की तरह,
और जलकर राख हो गया ।
यदि पत्तियों, टहनियों, जड़ों और तने को
स्वतन्त्रता का एक क्षण मिल जाता,
तो प्रकृति के नियम दखल दे सकते थे ।
पर चनत्कार तो चमत्कार है, चमत्कार ईश्वर है ।
जब हम पूरे सम्भ्रमित होते हैं,
उस क्षण वह हमें खोज निकालता है ।