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कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में / नवीन सी. चतुर्वेदी

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कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में
हमें भी तैरना आता है अब समन्दर में

ये तेरा आना मुझे छूना और निकल जाना
कि जैसे करने हों बस दस्तख़त रजिस्टर में

हमें तो रोज़ ही बस इन्तज़ार है तेरा
किसी भी डेट पे गोला बना केलेण्डर में

मेरी हथेलियाँ चूमी थीं उसने पिछले साल
न जाने किस को बनायेगा अब के ईस्टर में

मेरे नसीब को धरती मिली वो भी ऊसर
और एक वो है कि हर वक़्त हेलिकॉप्टर में

ये सोच कर ही कई रत्न आये थे मुम्बै
कि एक दिन वो दिखेंगे बड़े से पोस्टर में

मैं तर-ब-तर था पसीने से आप लज्जा से
जब आप और मैं पकड़े गये थियेटर में

हरेक हर्फ़ को निस्बत है आप ही से बस
निगह का पेज़ लगाओ तो दिल के प्रिन्टर में

वो एक दौर था जब डाकिये फ़रिश्ते थे
ख़ुदा सा दिखता था हजरात पोस्ट-मास्टर में

मेरी तरह से कभी सोच कर भी देखो ‘नवीन’
तुम्हें भी दिखने लगेगा - ‘शिवम’ - इरेज़र में