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आदमी / धीरेन्द्र अस्थाना
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घर की पुरानी दीवारों सा,
अब ढहने लगा है आदमी !
बहुत ढो चुका रिश्तों का बोझ,
अब दबने लगा है आदमी !
जिन्दगी के हादसों में टूटकर
बिखरने लगा है आदमी !
अपनों में रहकर भी अजनबी
सा लगने लगा है आदमी !
घर की पुरानी दीवारों सा,
अब ढहने लगा है आदमी !