भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे अब वे पराया कहने लगे / धीरेन्द्र अस्थाना
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:55, 26 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरेन्द्र अस्थाना }} {{KKCatKavita}} <poem>बेरु...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !
बाद मुद्दत के ज़ुबां पे आयी,
जो ये शिकस्त की कहानी ,
फासले जो दरमयां करने लगे...
बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !
साथ निभाने की खाकर कसमे,
बात आयी जब रस्मे निबाह की
हाले मुफलिसी बयाँ करने लगे...
बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !
ज़िन्दगी जीना तो एक तकल्लुफ था
तजुर्बे हवादिश का जब ज़िक्र हुआ ,
राह-ए-गुजर को जाया कहने लगे ...
बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !