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खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं / लाल्टू

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खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं
चिड़िया कहता हूँ उन्हें
मन ही मन कई सारे नाम दुहराता
मैना, चिरैया आदि सोचते हुए फूलों के नाम भी सोचने लगता हूँ

यहाँ से हर रोज़ पक्षी दिखते हैं
ऋतुओं के साथ पक्षी बदलते हैं
आजकल कोई देसी नामों से उन्हें नहीं पहचानता
इण्डियन फ़ेज़ेंट का हिन्दी नाम कौन है जानता

पक्षियों के नाम न जानने से जो तकलीफ़ थी, फूलों के नाम सोचने पर वह कम हुई है
जैसे कोई बुख़ार उतर-सा गया है, या तुम्हारे न होने की तकलीफ़ कम हो
गई है

तुमसे दूर रहना भी एक बीमारी है
जिसे किसी अस्पताल में जाँचा नहीं जा सकता
मैं बीमार और डाक्टर भी मैं हूँ
अनजाने ही पक्षियों फूलों के साथ सोचते हुए
अपना इलाज कर बैठता हूँ
देसी नाम भूलकर भूला बचपन
पक्षियों को दुबारा देखते हुए याद आता है टुकड़ों में

बचपन, कैशोर्य, कुछ निश्छल प्रतिज्ञाएँ ।

प्रतिज्ञाएँ सोचते हुए डर लगता है
इंकलाब जैसे शब्द अब कविता में थोड़े ही लिखे जा सकते हैं
जो वैज्ञानिक है उसे विज्ञान
जो अर्थशास्त्री उसे अर्थशास्त्र लिखना है
मैं जो सपनों की चीर-फाड़ करता हूँ

मुझे कभी तो लिखना है सपनों पर
आलोचक बतलाएँगे कि सपना आत्मीय शब्द नहीं है ।

खिड़की की कार्निस पर दो पक्षी हैं
चिडिय़ा कहता हूँ उन्हें ।