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रथ / सुरेन्द्र रघुवंशी
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यूँ ही नहीं कहा गया तुम्हें
गृहस्थी के रथ के दो पहियों में से
एक महत्वपूर्ण पहिया
तुम्हारे बग़ैर चल ही नहीं सकती
गृहस्थी और ज़िन्दगी की गाड़ी
स्त्री तुम्हें दरकिनार करके रचा गया सौंदर्यशास्त्र सच की गाढ़ी स्याही से नहीं लिखा गया
चरमराकर चल रहा है रथ
आजीवन यात्रा लम्बी और अन्तहीन है
इसलिए मरम्मत की ज़रूरत भी है
और प्रेम की अनुकूल बयार की भी
नीले आकाश में छुटपुट सफ़ेद बादलों के नीचे
अपनत्व की सुगन्धित हवा में
तुम्हारे साथ ये सफ़र बहुत सुहाना है
तुम साथ हो तो पहाड़ियों के बीच निर्जन पथ भी सुकून देता है
किसी एक दिन की कथा नहीं
समर्पित है तुम्हें
जीवन का पूरा उपन्यास ही ।