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जब दरवाज़ा वा होगा / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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जब दरवाज़ा वा होगा
घर भी कोहे-निदा होगा
हम होंगे दरिया होगा
जो होना होगा होगा
कल पर कैसे तज दें आज
घाटे का सौदा होगा
रेत में सर तो गाड़ दिए
लेकिन इससे क्या होगा
नीचे दलदल ऊपर आग
अब तो कुछ करना होगा
हम भी खिंचकर मिलते हैं
वो भी क्या कहता होगा
प्यासे करते हैं बदनाम
बादल तो बरसा होगा
अंगारे खा सच मत बोल
वर्ना मुँह काला होगा
ख़ून के गाहक धीर धरें
और अभी सस्ता होगा
सोच ‘मुज़फ़्फ़र’ अगला शे’र
शायद वो अच्छा होगा
शब्दार्थ
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