भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद तारों ने भी जब रख़्त-ए-सफ़र खोला है / शम्स फ़र्रुख़ाबादी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:02, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शम्स फ़र्रुख़ाबादी |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाँद तारों ने भी जब रख़्त-ए-सफ़र खोला है
हम ने हर सुब्ह इक उम्मीद पे दर खोला है

मैं भटकता रहा सड़कों पे तिरी बस्ती में
कब किसी ने मेरी ख़ातिर कोई घर खोला है

हो गई और भी रंगीं तिरी यादों की बहार
खिलते फूलों ने मिरा ज़ख़्म-ए-जिगर खोला है

उन की पलकों से गिरे टूट के कुछ ताज-महल
नींद से चौंक के जब दीदा-ए-तर खोला है

यार मेरा तो मुक़द्दर है वो चादर जिस ने
पाँव खोले हैं कभी और कभी सर खोला है

रात भारी कटी शायद गए दिन लौट आए
‘शम्स’ ने परचम-ए-उम्मीद-ए-सहर खोला है