Last modified on 1 अप्रैल 2014, at 11:15

आम कुतरते हुए सुए से / जयकृष्ण राय तुषार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:15, 1 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयकृष्ण राय तुषार |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आम कुतरते हुए सुए से
मैना कहे मुण्डेर की ।
अबकी होली में ले आना
भुजिया बीकानेर की ।

गोकुल, वृन्दावन की हो
या होली हो बरसाने की,
परदेसी की वही पुरानी
आदत है तरसाने की,
उसकी आँखों को भाती है
कठपुतली आमेर की ।

इस होली में हरे पेड़ की
शाख न कोई टूटे,
मिलें गले से गले, पकड़कर
हाथ न कोई छूटे,
हर घर-आँगन महके ख़ुशबू
गुड़हल और कनेर की ।

चौपालों पर ढोल-मजीरे
सुर गूँजे करताल के,
रूमालों से छूट न पाएँ
रंग गुलाबी गाल के,
फगुआ गाएँ या फिर बाँचेंगे
कविता शमशेर की ।