भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाल बत्ती वाला लड़का / लीना मल्होत्रा

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:10, 1 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीना मल्होत्रा |अनुवादक= |संग्रह= ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आपने मुझे देखा होगा..
लाल बत्ती पर
दौड कर आता हूँ
वह दौड मेरे आधे पेट से भर पेट खाने की दौड होती है
इसी लिए तुम्हारी कोई मुस्तैदी काम नही आती और
तुम्हारे शीशा चढा लेने से पहले ही मैं अपना हाथ खिडकी में फंसा देता हूँ
एक बार तो मेरा हाथ उस मशीन से बंद होने वाली खिडकी के बीच दब गया था
और मुझे बहुत जोर का दर्द हुआ था..
वह दर्द तो कुछ देर बाद खत्म हो गया था लेकिन उस आदमी की गालियाँ
मेरे सपनो की दीवारों पर उलटी लटकी हुई चमगादड़ की तरह चिपक गई थी.


बदले में उसकी कार को खुरच के मैं जो भागा
फिर तो मैंने अपनी २० फुट ऊंचे फ्लाई ओवर के नीचे मले हुए
अपने कोने वाले घर के पास आकर ही दम लिया
इस कोने को मल लेने के लिए भी एक पूरा युद्ध लड़ा गया था
उस युद्ध के समय का फैसला माँ ने ही किया था
जब मेरा बाप आधी बोतल पी कर टुन्न तो हो गया था पर लुड़का नही था
वही उसे भड़काने का उचित समय था
क्योंकि उसकी रूह उस अद्धे में अटकी थी
उस समय वह किसी की हत्या तक कर डालता
पीछे उसे उंगल देती माँ थी और तीसरी पंक्ति में हम १० भाई बहनों की फ़ौज
और आखिर हमने अपनी गठरी जमा ली थी
अब उस गठरी पर मजाल है कोई आँख भी टिकाये
हमारी गठरी में कुछ चमकीले कपडे भी रहते हैं
और कुछ दो या तीन नम्बर बड़े या छोटे जूते
एक आध नम्बर की ऐडजस्टमेंट तो कभी पैर तो कभी जूता मोड़ कर हो ही जाती है
लेकिन बड़े वाले जूते तो रात को सोते हुए पहनने के काम ही आते हैं..
और चमकदार कपड़ों का तो क्या कहना
लम्बाई कभी कभार ठीक आ भी जाए
पर चौड़ाई !
उसमे हम दो भाई बहन तो आराम से घुस सकते हैं..
चौड़ाई का ये अंतर तो हमेशा ही बना रहेगा..
एक आध पुरानी छेदों वाली चादर भी ज़रूर होती है
हाँ एक बार माँ को एक कार वाली में एक गठरी दे गई थी उसमे सलवारे ही सलवारे थी
उन सर्दियों हमारी ठंड बहुत भली कटी
एक टांग हम भाई बहन नीचे बिछा लेते
दूसरी ओढ़ लेते
नये कम्बल तो बापू की बोतल खरीदने के काम ही आते हैं.
तब माँ कहती है मरेगा तभी चैन आएगा

और
उस समय मैं सोचने लगता हूँ
कि बाप के मरने के बाद
मेरे रोज़ के कमाए हुए १० तो कभी १५ रूपये बच जायेंगे
जिन्हें वह घुड़क कर रोज़ मुझसे छीन लेता है

उससे मैं एक दिन
मैं गरम जलेबी खाऊंगा
अपने साईज के कपडे खरीद के पहनूंगा
और एक बोतल पानी भी खरीद के पीयूँगा

शहर आने से पहले जो पानी मैं गाँव में पीता था
उसमे कई बार कीड़े आते थे
तब माँ कहती दांतों की छलनी से छान कर पानी पी जा
और कीड़े थूक कर फेंक दे
फिर आश्वासन भी देती बस कुछ रोज़ में शहर चलेंगे
शहर में साफ़ पानी मिलेगा
अब यहाँ शहर चले आये दिन भर चौराहे पर भीख मांगो
मिन्नत मुथाजी करके
सुलभ शौचालय का पानी पीयो
इससे तो गाँव का पानी बेहतर था बेशक उसमे कीड़े थे
पर उसे थूकने में अपनी बेहतरी का अहसास तो था
भूख तो वहां भी ऐसी ही थी यहाँ भी ऐसी ही है
जब माँ से इस बारे में कहता हूँ
तो वो हंस कर कहती है
तू बड़ा भी तो हो गया है अब तेरी भूख पहले जित्ति थोड़ी रही .