भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसंत की बेलि / हरिऔध
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:46, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
खिल दिलों को हैं बहुत बेलमा रहीं।
हैं फलों फूलों दलों से भर रही।
खेल कितने खेल प्यारी पौन से।
बेलियाँ अठखेलियाँ हैं कर रही।
बेलियों में हुई छगूनी छबि।
बहु छटा पा गया लता का तन।
फूल फल दल बहुत लगे फबने।
पा निराली फबन फबीले बन।
है लुनाई बड़ी लताओं पर।
है चटकदार रंग चढ़ा गहरा।
लह बड़े ही लुभावने पत्ते।
लहलही बेलि है रही लहरा।
फूल के हार पैन्ह सज धाज कर।
बन गई हैं बसंत की दुलही।
हो लहालोट, हैं रही लहरा।
लहलही बेलियाँ लता उलही।
पा छबीला बसंत के ऐसा।
क्यों न छबि पा लता छबीली हो।
बेलियाँ क्यों बनें न अलबेली।
फूल फल फैल फब फबीली हो।