भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसंत बयार / हरिऔध
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:49, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
फूल है घूम घूम चूम रही।
है कली को खिला खिला देती।
है महक से दिसा महकती सी।
है मलय-पौन मोह दिल लेती।
है सराबोर सी अमीरस में।
चाँदनी है छिड़क रही तन पर।
धूम मह मह महक रही है वह।
बह रही है बसंत की बैहर।
मंद चल फूल की महक से भर।
सूझती चाल जो न भूल भरी।
आँख में धूल झोंक धूल उड़ा।
तो न बहती बयार धूल भरी।
फूल को चूम, छू हरे पत्ते।
बास से बस जगह जगह अड़ती।
जो न पड़ती लपट पवन ठंढी।
तो लपट धूप की न पट पड़ती।