छत्तीस जनों वाला घर / रजत कृष्ण
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से जनपद
बागबहरा में छत्तीस जनों वाला एक घर है
जहाँ से मैं आता हूँ कविता के इस देश में
छत्तीस जनों वाला हमारा घर
९० वर्षीया दादी की साँसों से लेकर
डेढ़ वर्षीय ख़ुशी की आँखों में बसता और ख़ुश होता है
यहाँ आने जाने को एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार दरवाज़े हैं
और घर का एक छोर एक रास्ते पर
तो दूसरा दूसरे रास्ते पर खुलता है
घर के दाएँ बाजू पर रिखीराम का घर है
तो बाएँ में फगनूराम का
रिखी और फगनू हमारे कुछ नहीं
पर एक से जीजा का रिश्ता जुड़ा, तो दूसरे से काका का
घर के ठीक सामने गौरा, चौरा और पीपल का पेड़ है
जो मेहमानों को हमारे घर का ठीक-ठीक पता देते हैं
यही, हाँ यही घर है मोहनराम साहू का, सावित्री देवी का
मोहित, शैलेश, अश्वनी, धरम, भूषण, महेश, रामसिंह, रामू और रजत कृष्ण का
आँगन में तुलसी और तुलसी के बाजू में छाता
छाता के बाजू में विराजता है बड़ा-सा सिलबट्टा
जो दीदी भैया की शादी का स्वाद तो चखा ही
चखा रहा है अब स्वाद भांजी मधु और भतीजी मेधा की मेहंदी का
आँगन के बीच में एक कुआँ है
और कुआँ है बाड़ी में
बाड़ी से लगा है कोठा
कोठा से जुड़ा है खलिहान
जहाँ पर कार्तिक में खेत से आता है धान
और लिपी-पुती कोठी गुनगुना उठती है
स्वागत है
आओ नवान्न स्वागत है
आओ नवान्न स्वागत है...