आग / रजत कृष्ण
आग से हमारा रिश्ता
उतना ही जीवन्त
और गहरा है
जितना कि पेड़ पवन और पानी से
पेड़ पवन और पानी की तरह
आग भी देवता होता है
यह बताते हुए
चेताती रहतीं हैं दादी नानी
आग चूल्हे की
कभी बुझे नहीं
ख्याल रखना आग बुझे नहीं
किसी भी सीने की ।
आग के महाकुण्ड में
पककर ही
नारंगी की तरह
गोल सुन्दर हुई है
हमारी धरती ।
आग में तप कर ही
खरा होता है
हमारी ज़िन्दगी का सोना
असल रूप धरता है
क़िस्मत का लोहा ।
आग से
हमने पानी को उबकाया
तो दुनिया की पटरी पर
दौड़ी पहली रेल गाड़ी ।
कुम्हार के आँवे को सुलगाया
तो हमें
पकी हण्डी, मटकी
और सुराही मिली,
मिले ईंट खपरे
खिलौने और गमले ।
गृहणी के हाथ में
आग जब पहुँची
हमने अन्न की मिठास को
भरपूर जाना....!
गोरसी में
शिशु देह की सेंकाई के लिए
जब सिपची वह
हमने माँ के गर्भ की
दहक के मर्म को पहचाना ।
आग की जोड़ का सम्वेदनशील
दुनिया में कौन होगा
जो बुझने के बाद भी
राख के ढेर में
धड़कती रहती है ।
एक ही फूँक से
जो दहक उठती है ।
तब आग की
एक लपट ही बहुत होती है
जब शासक की धमनियों में
पसर जाता है ठण्डापन
जुड़ा जाते हैं विचार ।