परिशिष्ट-21 / कबीर
सनक सनंद महेस समाना। सेष नाग तेरी मर्म न जाना॥
संत संगति राम रिदै बसाई।
हनुमान सरि गरुड़ समाना। सुरपति नरपति नहिं गुन जाना॥
चारि बेद अरु सिमृति पुराना। कमलापति कमल नहिं जाना॥
कह कबीर सो धरमैं नाहीं। पग लगि राम रहै सरनाहीं॥201॥
सब कोई चलन कहत है ऊँहा। ना जानी बैकुठ है कहाँ॥
आप आपका मरम न जाना। बातन ही बैकुंठ बखानाँ॥
जब लग मन बैकुंठ की आस। तब लग नाही चरन निवास॥
खाई कोटि न परल पगारा। ना जानौ बैकुंठ दुआरा॥
कहि कबीर अब कहिये काहि। साधु संगति बैकुंठे आहि॥202॥
सर्पनि ते ऊपर नहीं बलिया। जिन ब्रह्मा बिष्णु महादेव छलिया।
मारु मारु सर्पनी निर्मल जल पैठी। जिन त्रिभुवन डसिले गुरु प्रसाद डीठी॥
सर्पनी सर्पनी क्या कहहु भाई। जिन साचु पछान्या तिन सर्पनी खाई॥
सर्पनी ते आन छूछ नहीं अवरा। सर्पनी जीति कहा करै जमरा॥
इहि सर्पनी ताकी कीती होई। बल अबल क्या इसते होई॥
एह बसती ता बसत सरीरा। गुरु प्रसादि सहजि तरे कबीरा॥203॥
सरीर सरोवर भीतरै आछै कमल अनूप।
परस ज्योति पुरुषोत्तमो जाकै रेख न रूप।
रे मन हरि भजु भ्रम तजहु जग जीवन राम॥
आवत कछू न दीसई न दीसै जात॥
जहाँ उपजै बिनसै तहि जैसे पुरवनि पात।
मिथ्या करि माया तजा सुख सहज बीचारि॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि॥204॥
सासु की दुखी ससुर की प्यारी जेठ के नाम डरौं रे।
सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरौं रे॥
मेरी मति बौरी मैं राम बिसारो किन विधि रइनि रहौं रे॥
सेजै रमत नयन नहीं पेखौं इहु दुख कासौं कहौं रे॥
बाप सबका करै लराई मया सद मतवारी॥
बड़े भाई के जग संग होती तब ही नाह पियारी॥
कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनम गवाया॥
झूठी माया सब जग बाँध्या पै राम रमत सुख पाया॥205॥
सिव की पुरी बस बुधि सारु। यह तुम मिलि कै करहु बिचार॥
ईत ऊत की सोझौ परै। कौन कर्म मेरा करि करि मरै॥
निज पद ऊपर लागौ ध्यान। राजा राम नाम मेरा ब्रह्म ज्ञान॥
मूल दुआरै बंध्या बंधु। रवि ऊपर गहि राख्या चंदु॥
पंचम द्वारे की सिल ओड़। तिह सिल ऊपर खिड़की और॥
खिड़की ऊपर दसवा द्वार। कहि कबीर ताका अंतु न पार॥206॥
सुख माँगत दुख आगै आवै। सो सुख हमहुँ न माँग्या भावै॥
बिषगा अजहु सुरति सुख आसा। कैसे होइ है राजाराम निवासा॥
इसु सुख ते सिव ब्रह्म हराना। सो सुख हमहुँ साँच करि जाना॥
सनकादिक नारद मुनि सेखा। तिन भी तन महि मन नहीं पेखा॥
इस मन कौ कोई खोजहु भाई। तन छूटै मन कहा समाई॥
गुरु परसादी जयदेव नामा। भगति कै प्रेम इनहीं है जाना॥
इस मन कौ नहीं आवन जाना। जिसका भम गया तिन साचु पछाना॥
इस मन कौ रूप न रेख्या काई। हुकुमे होया हुकुम बूझि समाई॥
इस कन का कोई जानै भेउ। इहि मन लीण भये सुखदेउ॥
जींउ एक और सगल सरीरा। इस मन कौ रबि रहै कबीरा॥207॥
सुत अवराध करल है जेते। जननी चीति न राखसि तेते॥
रामज्या हौं बारिक तेरा। काहे न खंडसि अवगुन मेरा॥
जे अति कोप करे करि धाया। ताभी चीत न राखसि माया॥
चित्त भवन मन परो हमारा। नाम बिना कैसे उतरसि पारा॥
देहि बिमल मति सदा सरीरा। सहजि सहजि गुन रवै कबीरा॥208॥
सुन्न संध्या तेरी देव देवा करि अधपति आदि समाई।
सिद्ध समादि अंत नहीं पाया लागि रहे सरनाई॥
लेहु आरति हो पुरुष निरंजन सति गुरु पूजहु जाई॥
ठाढ़ा ब्रह्मा निगम बिचारै अलख न लखिया जाई॥
तत्तु तेल नाम कीया बाती दीपक देह उज्यारा॥
जोति लाई जगदीस जगाया बूझे बूझनहारा॥
पंचे सबद अनाहत बाजै संगे सारिंगपानी।
कबीरदास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥209॥
सुरति सिमृति दुई कन्नी मंदा परमिति बाहर खिंथा॥
सुन्न गुफा महि आसण बैसण कल्प विवर्जित पंथा॥
मेरे राजन मैं बैरागी जोगी मरत न साग बिजोरी॥
खंड ब्रह्मांड महि सिंडी मेरा बटुवा सब जग भसमाधारी।
ताड़ी लागी त्रिपल पलटिये छूटै होइ पसारी॥
मन पवन्न दुई तूंबा करिहै जुग जुग सारद साजी॥
थिरु भई नंती टूटसि नाहीं अनहद किंगुरी बाजी॥
सुनि मन मगन भये है पूरे माया डोलत लागी॥
कहु कबीर ताकौ पुनरपि जनम नहीं खेलि गयो बैरागी॥210॥
सुरह की सैसा तेरी चाल। तेरा पूछट ऊपर झमक बाल॥
इस घर मह है सु तू ढुढ़ि खाहि। और किसही के तू मति ही जाहि॥
चाकी चाटै चून चाहि। चाकी का चीथरा कहा लै जाहि॥
छीके पर तेरी बहुत डीठ। मत लकरी सोंटा परै तेरी पीठ॥
कहि कबीर भोग भले कीन। मति कोऊ मारै ईट ठेम॥211॥
सो मुल्ला जो मन स्यो लरै। गुरु उपदेश काल स्यो जुरै॥
काल पुरुष का मरदै मान। तिस मुल्ला को सदा सलाम॥
है हुजूर कत दूरि बतावहु। दुंदर बाधहु मुंदर पावहु॥
काजी सो जो काया बिचारै। काया की अग्नि ब्रह्म पै जारै॥
सुपनै बिंदु न देई जरना। तिस काजी कौ जरा न मरना॥
सो सुरतान जो दुइ सुर तानै। बाहर जाता भीतर आनै॥
गगन मंडल महि लस्कर करै। सो सुरतान छत्रा सिर धरै॥
जोगी गोरख गोरख करै। हिंदू राम नाम उच्चरै॥
मुसलमान का एक खुदाई। कबीर का स्वामी रह्या समाई॥212॥
स्वर्ग वास न बाछियै डारियै न नरक निवासु।
होना है सो होइहै मनहि न कीजै आसु॥
रमय्या गुन गाइयै जाते पाइयै परम निधानु॥
क्या जप क्या तप संयमी क्या ब्रत क्या इस्नान॥
जब लग जुक्ति न जानिये भाव भक्ति भगवान॥
संपै देखि न हर्षियौ बिपति देखि न रोइ।
ज्यो संपै त्यों बिपत है बिधि ने रच्या सो होइ॥
कहि कबीर अब जानिया संतन रिदै मझारि॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि॥213॥
हज्ज हमारी गोमती तीर। जहाँ बसहि पीतंबर पीर॥
वाहु वाहु क्या खुद गावता है। हरि का नाम मेरे मन भावता है।
नारद सारद करहि खवासी। पास बैठि बिधि कवला दासी॥
कंठे माला जिह्वा नाम। सुहस नाम लै लै करो सलाम॥
कहत कबीर राम नाम गुन गावौ। हिंदु तुरक दोऊ समझावौ॥214॥
हम घर सूत तनहि नित ताना कंठ जनेऊ तुमारे॥
तुम तो बेद पढ़हु गायत्री गोबिंद रिदै हमारे॥
मेरी जिह्ना विष्णु नयन नारायण हिरदै बसहि गोबिंदा॥
जम दुआर जब पूँछसि बबरे तब क्या कहसि मुकुंदा॥
हम गोरू तुम ग्वार गुसाइ जनम जनम रखवारे॥
कबहूँ न पार उतार चराइह कैसे खसम हमारे॥
तू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा बूझहु मोर गियाना॥
तुम तौ पाचे भूपति राजे हरि सो मोर धियाना॥215॥
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राचसु मन भावै।
अल्लह अबलि दीन को साहिब जोर नहीं फुरमावै॥
काजी बोल्या बनि नहीं आवै।
रोजा धरै निवाजु गुजारै कलमा भिस्त न होई।
सत्तरि काबा घर ही भीतर जे करि जानै कोई॥
निवाजु सोई जो न्याइ बिचारै कलमा अकलहि जानै॥
पाँचहु मुसि मुसला बिछावै तब तौ दीन पछानै॥
खसम पछानि तरस करि जीय महि मारि मणी करि फीकी॥
आप जनाइ और को जानै तब होई भिस्त सरीकी॥
माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।
कहै कबीर भिस्त छोड़ि करि दोजक स्यों मनमाना॥216॥
हरि बिन कौन सहाई मन का।
माता पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सब फन का॥
आगै कौ किछु तुलहा बाँधहु क्या भरोसा धन का॥
कहा बिसासा इस भाँडे का इत नकु लगै ठनका॥
सगल धर्म पुन्न फल पावहु धूरि बाँछहु सब जन का॥
कहै कबीर सुनहु रे संतहु इहु मन उड़न पखेरू बन का॥217॥
हरि जन सुनहि न हरि गुन गावहिं। बातन ही असमान गिरावहिं॥
ऐसे लोगन स्यों क्या कहिये।
जो प्रभु कीये भगति ते बाहज। तिनते सदा डराने रहिय॥
आपन देहि चुरू भरि पानी। तिहि निंदहि जिह गंगा आनी॥
बैठत उठत कुटिलता चालहिं। आप गये औरनहू घालहिं॥
छाड़ि कुचर्चा आन न जानहिं। ब्रह्माहू का कह्यो न मानहिं॥
आप गये औरनहू खोवहि। आगि लगाइ मंदिर में सोवहिं॥
औरन हँसत आप हहिं काने। तिनको देखि कबीर लजाने॥218॥
हिंदू तुरक कहाँ ते आये किन एह राह चलाई।
दिल महि सोच बिचार कवादे भिस्त दोजक कित पाई॥
काजी तै कौन कतेब बखानी॥
पढ़त गुनत ऐसे सब मारे किनहू खबरू न जानी॥
सकति सनेह करि सुन्नति करियै मैं न बदौगा भाई॥
जौ रे खुदाई मोहि तुरक करैगा आपन ही कटि जाई॥
सुन्नत किये तुरक जे होइगा औरत का क्या करियै॥
अर्द्ध सरीरी नारि न छोड़े तातें हिंदू ही रहिये॥
छाड़ि कतेब राम भजु बौरे जुलम करत है भारी॥
कबीर पकरी टेक राम की तुरक रहे पचि हारी॥219॥
हीरै हीरा बेधि पवन मन सहजे रह्या समाई।
सकल जोति इन हीरै बेधी सतिगुरु बचनी मैं पाई॥
हरि की कथा अनाहद बानी हंस ह्नै हीरा लेइ पछानी॥
कह कबीर हीरा अस देख्यो जग महि रह्या समाई॥
गुपता हीरा प्रकट भयो जब गुरु गम दिया दिखाई॥220॥
हृदय कपट मुख ज्ञानी। झूठे कहा बिलोवसि पानी॥
काया मांजसि कौन गुना। जो घट भीतर है मलनाँ॥
लौकी अठ सठि तीरथ न्हाई। कौरापन तऊ न जाई॥
कहि कबीर बीचारी। भव सागर तारि मुरारी॥221॥