भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सब्ज़ी-बाज़ार में / निरंजन श्रोत्रिय

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:55, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब्ज़ी-बाज़ार के काँव-काँव समुद्र में
बैठी है एक बूढ़ी औरत
सब्जि़यों के खामोश द्वीपों से घिरी

भिण्डी क्या भाव
ढाई रूपये पाव
उसकी हरी अंगुलियों में छूता हूँ
झुर्रीदार ताज़गी

लौकी
ढाई रूपये पाव
नाखून नहीं गड़ाता
रक्त निकलने के भय से

मेथी
बाल सहलाता हूँ उसके
भर जाती है वह ममत्व से

पत्ता गोभी
कितनी पर्तों में
बन्द चेहरा उसका

बहुत महँगी है सब्ज़ी अम्माँ!

ले जा बेटा दो रूपये पाव
भिण्डी लौकी मेथी और पत्तागोभी से
भर देती वह थैला
डाल देती थोड़ा धनिया भी ऊपर से

लौटता हूँ घर हिसाब गुनगुनाता
बचाये पैसे कितने

थैले में बन्द अम्माँ मुस्कुरा रही है।