भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीवार पर कूची चलाते हुए / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या जब शरीर काम करता है तो
मन भी काम करता जाता है?
या शरीर, मन के हिस्से की ऊर्जा को भी सोख लेता है
या शरीर अपना काम करता है
और मन अपना
शरीर किस छोर पर मन से कदम ताल मिला पता है
किस छोर पर साथ छोड़ देता है
क्या हमारे हाथों में थामी हुई सुविधा
भीतर कोई सांसारिक हलचल पैदा करती है
या सुविधा विचारों की उफान को मंद कर देती है
जिस घड़ी दाग-धब्बे साफ हो रहे होते है
तो क्या मन में जमी हुई एक मैली लकीर भी साफ होने में सफल हो जाती है
और कूची से रंग करते हुए भी
ठीक वैसे ही विचार आते जो
सुघड़ ब्रश से पुताई करते हुए आते हैं
ये सारे विचार उस वक्त अपना जिस्म ओढ़ रहे हैं
जब मैं घर की पुरानी मटमैली दीवार पर आसमनी रंग पोत रही हूँ
ढेर सारे प्रश्न हैं
और उत्तर एक भी नहीं
इस बीच पूरी की पूरी दीवार की कलई छुप गयी है,
और खिली हुई आसमानी दीवार
मीठी और रंगीन हंसी हंसती दिख रही है