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इतिहास से बाहर मेरा तप / विपिन चौधरी

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प्रेम के शिलान्यास के लिए
खतरे की घंटी से दो पल को
झनकती घंटी मांग लूंगी
सपनों का रंग उतरते देखूंगी
खुशियों को सस्ते में बेच डालूँगी
पांडुरंग के फर्जी देशप्रेम का लम्बा नाटक
बिना ऊबे हजम कर जाऊँगी
इकतारे में लगे दूसरे विकल्पी तार को देख
दुःख के चार सुर नहीं छेड़ूंगी
अमूर्त को मूर्त में तब्दील हो जाने तक का सधा हुआ इंतजार करूंगी
सीता के वेश में उर्मिला सा इंतजार सहूँगी
एक पांव पर खड़ी हो
सावित्री-तप पूरा करूंगी
परीक्षित के नजदीक जाकर
तक्षक का जहरीला दंश पचा लूंगी
पर जिस घड़ी प्रेम अपनी केंचुली उतार फेंकेगा
उस घड़ी मैं बिखर जाऊँगी