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प्रेम का यह आगंतुक रूप / विपिन चौधरी

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कविता
प्रेम का सबसे एकान्तिक दुःख है
जिस तरह दूरियां
यादों का पंचनामा हैं
लो अलगाव का एक और पक्षी
पंख फड़फड़ाते हुए मेरे आंगन में उतर आया हैं
सारे काम काज को छोड़ मैं
अपनी बालकनी में निकल आई हूँ उसे दाने डालने
सुनती आई हूँ
प्रेम कहीं जाता नहीं
रूप बदल बदल कर
फिर-फिर जीवन में
आ धमकता है
कहीं आँगन में उतरा पक्षी भी प्रेम का