भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबड्डी खेलती लड़कियां / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:07, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारी बांट छांट इसी धरती पर हुई
लड़के को पतंग थमा दिया गया
लड़की को सपने
पतंग के लिए कभी आकाश छोटा नहीं पड़ा
लड़की के लिए सपने कम नहीं पड़े
देर रात फाग के बहाने
घर की देहरी से बाहर
अनारों, पतासो, गुड्डी, संतोड़, कविता,
केलों, बत्ती
कमर में दुपट्टा घोंस
खूब कबड्डी खेलती हैं
लड़कियां अपनी महीन आवाजों में
गांव के उस छक्के को भी शामिल कर लेती हैं
जिसे लड़कों ने कभी अपने खेल में न्यौता नहीं दिया
ये पटका
वोह पटका
और लो ये घोबी पटका
यह कबड्डी का बहादुर खेल है
जनाब
जिसमें जांघों पर
हथेली मार-मार कर
ज़ोर आजमाईश दिखानी होती है
घर के सारे लोग सो चुके हैं
लड़कियां फाग के गीत गाने के बहाने
कबड्डी-कबड्डी खेल रही हैं
रात धीरे-धीरे ढल रही है
लड़कियां ये भूल चुकी हैं
बस ज़ोर-ज़ोर से पुकारती
कह रही हैं
कबड्डी
कबड्डी
कबड्डी