भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यादें / अंजना बख्शी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 29 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंजना बख्शी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)
यादें बेहद ख़तरनाक होती हैं
अमीना अक्सर कहा करती थी
आप नहीं जानती आपा
उन लम्हों को, जो अब अम्मी
के लिए यादें हैं...
ईशा की नमाज़ के वक़्त
अक्सर अम्मी रोया करतीं
और माँगतीं ढेरों दुआएँ
बिछड़ गए थे जो सरहद पर,
सैंतालीस के वक़्त उनके कलेजे के
टुकड़े.
उन लम्हों को आज भी
वे जीतीं दो हज़ार दस में,
वैसे ही जैसे था मंज़र
उस वक़्त का ख़ौफनाक
भयानक, जैसा कि अब
हो चला है अम्मी का
झुर्रीदार चेहरा, एकदम
भरा सरहद की रेखाओं
जैसी आड़ी-टेढ़ी कई रेखाओं
से, बोझिल, निस्तेज और
ओजहीन !