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उडीक / नन्द भारद्वाज

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ताळ खासा व्हेगी सुणतां -
अेवड़ री टोकर्यां
मिंदर रा ट्यालिया
झालर
स्यामी रौ संख
अर देखतां
    मारग में उडती खंख,

अंधारै में गूंथीजतौ आभौ
अर आभै री पुड़तां में
आंख्यां झपकाता तारा
       खांडौ चांद -
सगळा ठैर्योड़ा-सा लागै,
डर्योड़ा जीव-जिनावर
बगत नै सैंन करै -
    अेकर तौ बता भायला !
    कांई व्हैला आगै?

खैर छोडो -
वौ देखौ बैठौ खेजड़ै पर हाडौ
गाळै में गाडौ
अर रिड़कै तालर में पाडौ --
अॅं हॅं !
सावळ चाली चूंधिया!
आंख्यां नै उघाड़ -
आगै खंदेड़ी-सो खाडौ,
अर खाडौ
जिकौ रोजीना
तर तर ऊंडौ व्हियां जाय
नीं मिळै पोयोड़ी पोळी
तौ बासी खीचड़ौ ई खाय
       दिन भर री बळती लाय,
आवण री उडीक वांरी -
भूखा टाबर करै हाय हाय !

बाबौ छांदड़ी रै ओलै
बैठा लुद्रासी माळा पंपोळै -
नीं हंसै नीं कीं बोलै
मनो-मन धीजै,
कीकर ई जे बिना धांसी-खंखारै
                जी-सोरै
आ रात नीसर जाय !

बरसां सूं
आ कांमणगारी रात -
बैरण जोबन रात,
रूंध्यां पड़ी है आखै चौफेर नै
भोर भचीड़ा खावै काळा भाखरां में
भूंड रौ ठीकरौ ऊंचायां मिनख
अंधारै में ओला सोधै
गांव रै दोळौ भाजतौ फिरै अेक भूत
गुवाड़ में गंडक भुस्सै -
डरती ठाडी रेत
जिग्यां सूं सिरकण लागै,
दिखणादी आंधी बाजै -
सूंसाड़ा करता रूंख
       आपरी जिग्यां छोडै,
घरां में चाफळ पकड़्यां लोग
नींद रा न्हौरा काढै
रूंखां पर मून पंखेरू
धोरां रै उपरांखर
उगूंणै आभै री कोरां में
भोर रा गेला देखै
   अेकल देखै -
       अेकल देखै --- !

सितंबर, 1971