भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मकड़ी रो जाळो / घनश्याम नाथ कच्छावा
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:50, 14 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=घनश्याम नाथ कच्छावा |संग्रह=मंडा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जीवण
जियां-
मकड़ी रो जाळो।
मकड़ी बणावै
आपरो जाळ
फंसै
उणरै मांय आय’र
मोकळा जीव मतैई।
माया री मकड़ी
गूंथै जीवण रो जाळ
फंस ज्यावै लोभी जीव
इणरै मांय आय’र मतैई
गुंधळीजै
अंतस री आंख्यां
दीसै कोनी पछै कीं।