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एक साँझ, पुस्तकालय में / ज्ञानेन्द्रपति

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पुस्तकालय की प्रौढ़ पढ़न-मेज़ पर

खुली हुई क़िताब के पन्नों में

है गुरुत्वाकर्षण--ठीक उतना

जितना था बचपन के चौकोर मैदान में


एक साँझ

चिड़ियों का शोर गझिन होकर

एक अदृश्य चुम्बक में बदल जाता है


माथ उठा

पुस्तकालय के निनादित रोशनदानों की ओर ताकते

तुम अचरज करते हो

बाहर कौन बुलाता है


खुली हुई क़िताब के

शब्दार्थ धुंधले हो जाते हैं

बाहर कोई शब्द है जिसका अर्थात नहीं, जो साक्षात


धवल मर्करी ट्यूबों के जलते रहने के बावजूद

पीली पड़ जाती हैं पुस्तकें पुस्तकालय की

उस साँझ

तुम्हारे देखते-देखते