भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नहीं आने के लिए कहकर / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:31, 8 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव }} नहीं आने के लिए कह कर जाऊंगा और फिर...)
नहीं आने के लिए कह कर जाऊंगा
और फिर आ जाऊंगा
पवन से, पानी से, पहाड़ से
कहूंगा-- नहीं आऊंगा
दोस्तों से कहूंगा और ऎसे हाथ मिलाऊंगा
जैसे आख़िरी बार
कविता से कहूंगा-- विदा
और उसका शब्द बन जाऊंगा
आकाश से कहूंगा और मेघ बन जाऊंगा
तारा टूटकर नहीं जुड़ता
मैं जुड़ जाऊंगा
फूल मुरझा कर नहीं खिलता
मैं खिल जाऊंगा
हर समय 'दुखता रहता है यह जो जीवन'
हर समय टूटता रहता है यह जो मन
अपने ही मन से
जीवन से
संसार से
रूठ कर दूर चला जाऊंगा
नहीं आने के लिए कहकर
और फिर आ जाऊंगा ।