भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे / विद्यापति
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:48, 18 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विद्यापति |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} {{KKCatMaithiliR...' के साथ नया पन्ना बनाया)
लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे।
सिव-सिव जिव नहिं जाय आस अरुझायल रे।।
मन कर तहाँ उडि जाइ जहाँ हरि पाइअ रे।
पेम-परसमनि-पानि आनि उर लाइअ रे।।
सपनहु संगम पाओल रंग बढाओलरे।
से मोर बिहि विघटाओल निन्दओ हेराओल रे।।
सुकवि विद्यापति गओल धनि धइरज धरु रे।
अचिरे मिलत तोर बालमु पुरत मनोरथ रे।।