भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युद्धबन्दियों का गीत / शशिप्रकाश

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 20 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= शशिप्रकाश |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम समय के युद्धबन्दी हैं
युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं हम ।
लालिमा है क्षीण पूरब की
पर सुबह के बुझते हुए तारे नहीं हैं हम ।
हम समय के युद्धबन्दी हैं...

सच यही, हाँ, यही सच है
मोर्चे कुछ हारकर पीछे हटे हैं हम
जंग में लेकिन डटे हैं, हाँ, डटे हैं हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं...

बुर्ज कुछ तोड़े थे हमने
दुर्ग पूँजी का मगर टूटा नहीं था !
कुछ मशालें जीत की हमने जलायी थीं
सवेरा पर तमस के व्यूह से छूटा नहीं था ।
नहीं थे इसके भरम में हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं...

चलो, अब समय के इस लौह कारागार को तोड़ें
चलो, फिर जिन्दगी की धार अपनी शक्ति से मोड़ें
पराजय से सबक लें, फिर जुटें, आगे बढ़ें फिर हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं...

न्याय के इस महाकाव्यात्मक समर में
हो पराजित सत्य चाहे बार-बार
जीत अन्तिम उसी की होगी
आज फिर यह घोषणा करते हैं हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं...