जीवन और मौत का सैलाब / राजेन्द्र जोशी
भरोसे को कौनसा नाम दूं
विश्वास और आस्था
क्या मौत की संज्ञा
उन रास्तों में
जिनमें हो रही थी हत्याएं
ठिकाना तो तेरे पास भी नहीं था
अपनी मौत से जूझता हुआ
कामयाब हो गया
जैसे-तैसे
खुद को बचाने में
तुम्हारी लाज
वे लोग
जो आए थे
तुमसे मिलने
तुम मिल तो नहीं सके उनसे
केवल दर्शक की तरह
देखते रहे
उनके, जीवन को और मौत के सैलाब में
खोते हुए
उस भयानक समय को
सबने देखा
जिसे तुम रोक नहीं सके
अथवा रोका नहीं
अपनी गंभीर आकृति के साथ
बिना आँसू बहाए
अपनी तीनों आँखों से
सब कुछ भांप कर
भंग की तरंग में
बैठ गए
केदार से किस कैलाश पर
अकाल नहीं बाढ़ नहीं
भूकंप नहीं
भयावहता भी नहीं थी
किसी का आक्रमण भी नहीं था
एक साथ तेरी सहमति के बिना
तेरे ही साम्राज्य और लंबे रास्तें में
किसने किया
हजारों निहत्थों पर यह वज्राघात
उनके बच्चे ढूँढ रहे टूटे-फूटे
पत्थरों में अपने पूर्वजों के सुराग
नहीं हुआ अग्नि-दाग
और, न ही जल समाधि
न कर सकेंगे उनका श्राद्व
पहना भी नहीं सकेंगे
उनके चित्र को माला
बड़े पत्थर की ठोकर से
पगडंडी सी सड़कें
आखिर छोर से पहले ही
बन गया वह आखिरी छोर
और बंद हो गए रास्ते
उन तक पहँुचने के
यदि डाल देता अपनी साँस
उधारी ही सही
उनकी रूह में
फिर किसी दिन
अपनी उधारी का हिसाब
कर लेना था मुझसे आकर