भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:00, 12 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=गुलाब और बुलबुल / त्रिलोचन }} कोई दिन थ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था
आज वीराना हुआ है, पहले दिल आबाद था।

अपनी चर्चा से शुरू करते हैं अब तो बात सब,
और पहले यह विषय आया तो सबके बाद था।

गुल गया, गुलशन गया, बुलबुल गया, फिर क्या रहा
पूछते हैं अब व` ठहरा किस जगह सैयाद था।

मारे मारे फिरते हैं उस्ताद अब तो देख लो,
मर्म जो समझे कहे पहले वही उस्ताद था।

मन मिला तो मिल गये और मन हटा तो हट गये,
मन की इन मौजों प` कोई भी नंहीं मतवाद था।

रंग कुछ ऐसा रहा और मौज कुछ ऐसी रही,
आपबीती भी मेरी वह समझे कोई वाद था।

अन्न-जल की बात है, हमने त्रिलोचन को सुना,
आजकल काशी में हैं, कुछ दिन इलाहाबाद था।