भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धर्म से बाहर / पुष्पिता

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:34, 25 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पुष्पिता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेम को
पृथ्वी की प्रथम और अंतिम चाहत की तरह
चाहा है।

स्वार्थ के समय ने
प्यार को बहुत मैला कर दिया है।
अविश्वास ने तोड़ दिया है
प्यार का साँचा
जैसे - ईश्वर से बने धर्म से
ईश्वर बाहर हो गया है
जैसे - धर्म के भीतर से
लोगों ने ईश्वर को उठा दिया है।

अपने
मानस के धर्म में
मैं फिर से
रच रही हूँ 'ईश्वर'
अपनी आस्था की ताकत से
वैसे ही
अपने मन के धर्म से
तुम्हारे ह्रदय में
रच रही हूँ प्यार।

शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे
तुम मेरे
मन और अस्तित्व की
पहली और अंतिम चाहत हो...।