पहला अंक / धर्मवीर भारती
कौरव नगरी
तीन बार तूर्यनाद के उपरान्त
कथा-गायन
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अन्धों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन
भय का अन्धापन, ममता का अन्धापन
अधिकारों का अन्धापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया....द्वापर युग बीत गया
[पर्दा उठने लगता है]
यह महायुद्ध के अंतिम दिन की संध्या
है छाई चारों ओर उदासी गहरी
कौरव के महलों का सूना गलियारा
हैं घूम रहे केवल दो बूढ़े प्रहरी
[पर्दा उठाने पर स्टेज खाली है। दाईं और बाईं ओर बरछे और ढाल लिये दो प्रहरी हैं जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार चलते हैं।]
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
- पर घूम-घूम पहरा देते हैं
- इस सूने गलियारे में
- पर घूम-घूम पहरा देते हैं
प्रहरी 2. सूने गलियारे में
- जिसके इन रत्न-जटित फर्शों पर
- कौरव-वधुएँ
- मंथर-मंथर गति से
- सुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थीं
- आज वे विधवा हैं,
- जिसके इन रत्न-जटित फर्शों पर
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
- इसलिए नहीं कि
- कहीं युद्धों में हमने भी
- बाहुबल दिखाया है
- प्रहरी थे हम केवल
- सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में
- भाले हमारे ये,
- ढालें हमारी ये,
- निरर्थक पड़ी रहीं
- अंगों पर बोझ बनी
- रक्षक थे हम केवल
- लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
- इसलिए नहीं कि
प्रहरी 2. रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ..........
- संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की
- जिसकी सन्तानों ने
- महायुद्ध घोषित किये,
- जिसके अन्धेपन में मर्यादा
- गलित अंग वेश्या-सी
- प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी
- उस अन्धी संस्कृति,
- उस रोगी मर्यादा की
- रक्षा हम करते रहे
- सत्रह दिन।
- संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की
प्रहरी 1. जिसने अब हमको थका डाला है
- मेहनत हमारी निरर्थक थी
- आस्था का,
- साहस का,
- श्रम का,
- अस्तित्व का हमारे
- कुछ अर्थ नहीं था
- कुछ भी अर्थ नहीं था
- मेहनत हमारी निरर्थक थी
प्रहरी 2. अर्थ नहीं था
- कुछ भी अर्थ नहीं था
- जीवन के अर्थहीन
- सूने गलियारे में
- पहरा दे देकर
- अब थके हुए हैं हम
- अब चुके हुए हैं हम
- कुछ भी अर्थ नहीं था
[चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगाकर सुनता है, दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।]
प्रहरी 1. सुनते हो
- कैसी है ध्वनि यह
- भयावह ?
- कैसी है ध्वनि यह
प्रहरी 2. सहसा अँधियारा क्यों होने लगा
- देखो तो
- दीख रहा है कुछ ?
- देखो तो
प्रहरी 1. अन्धे राजा की प्रजा कहाँ तक देख ?
- दीख नहीं पड़ता कुछ
- हाँ, शायद बादल है
- दीख नहीं पड़ता कुछ
[दूसरा प्रहरी भी बगल में आकर देखता है और भयभीत हो उठता है]
प्रहरी-2. बादल नहीं है
- वे गिद्ध हैं
- वे गिद्ध हैं
लाखों-करोड़ों
पाँखें खोले
[पंखों की ध्वनि के साथ स्टेज पर और भी अँधेरा]
प्रहरी-1. लो
- सारी कौरव नगरी
- का आसमान
- गिद्धों ने घेर लिया
- सारी कौरव नगरी
प्रहरी-2. झुक जाओ
- झुक जाओ
- ढालों के नीचे
- छिप जाओ
- नरभक्षी हैं
- वे गिद्ध भूखे हैं।
- झुक जाओ
[प्रकाश तेज होने लगता है]
प्रहरी-1. लो ये मुड़ गये
- कुरुक्षेत्र की दिशा में
- कुरुक्षेत्र की दिशा में
[आँधी की ध्वनि कम होने लगती है]
प्रहरी-2. मौत जैसे
- ऊपर से निकल गयी
- ऊपर से निकल गयी
प्रहरी-1. अशकुन है
- भयानक वह।
- पता नहीं क्या होगा
- कल तक
- इस नगरी में
- भयानक वह।
[विदुर का प्रवेश, बाईं ओर से]
प्रहरी-1. कौन है ?
विदुर. मैं हूँ
- विदुर
- देखा धृतराष्ट्र ने
- देखा यह भयानक दृश्य ?
- विदुर
प्रहरी-1. देखेंगे कैसे वे ?
- अन्धे हैं।
- कुछ भी क्या देख सके
- अब तक
- वे ?
- अन्धे हैं।
विदुर. मिलूँगा उनसे मैं
- अशकुन भयानक है
- पता नहीं संजय
- क्या समाचार लाये आज ?
- अशकुन भयानक है
[प्रहरी जाते हैं, विदुर अपने स्थान पर चिन्तातुर खड़े रहते हैं। पीछे का पर्दा उठने लगता है।]
- कथा गायन
- कथा गायन
है कुरुक्षेत्र से कुछ भी खबर न आयी
जीता या हारा बचा-खुचा कौरव-दल
जाने किसकी लोथों पर जा उतरेगा
यह नरभक्षी गिद्धों का भूखा बादल
अन्तःपुर में मरघट की-सी खामोशी
कृश गान्धारी बैठी है शीश झुकाये
सिंहासन पर धृतराष्ट्र मौन बैठे हैं
संजय अब तक कुछ भी संवाद न लाये।
[पर्दा उठने पर अन्तःपुर। कुशासन बिछाये सादी चौकी पर गान्धारी, एक छोटे सिंहासन पर चिन्तातुर धृतराष्ट्र। विदुर उनकी ओर बढ़ते हैं।]