Last modified on 26 मई 2014, at 22:12

दिनचर्या / शिरीष कुमार मौर्य

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 26 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= शिरीष कुमार मौर्य |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आज सुबह सूरज नहीं निकला अपनी हैसियत के हिसाब से
बहुत मोटी थी बादलों की परत
उस नीम-उजाले से मैंने
उजाला नहीं बादलों में संचित गई रात का
नम अन्धेरा माँगा
उसमें मेरे हिस्‍से का जल था

काम पर जाते हुए बुद्ध मूर्ति-सा शान्त और एकाग्र था रास्‍ता
उस विराट शान्ति से मैंने
सन्‍नाटा नहीं गए दिन की थोड़ी हलचल माँगी
मेरे कुछ लोग जो फँस गए थे उसमें आज दिख भी नहीं रहे थे दूर-दूर तक
उनके लिए चिन्तित हुआ

दिन भर बाँएँ पाँव का अँगूठा दुखता रहा था
मैंने रोज़ शाम के अपने भुने हुए चने नहीं माँगे
कुछ गाजर काटीं और
शाम में मिला दिया एक अजीब-सा रंग

रात बादल छँट गए
बालकनी में खड़े हुए देख रहा हूँ
भरपूर निकला है पूनम का चाँद
मैं उससे क्‍या माँगू

थोड़ा उजाला मैंने कई सुबहों से बचा कर रखा है
उस उजाले से अब मैं एक कविता माँग रहा हूँ
अपने हिस्‍से की रात को
कुछ रोशन करने के लिए

शर्म की बात है
पर जिन्‍हें अब तब गले में लटकाए घूम रहा था
वे भी कम पड़ गईं भूख मिटाने को