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दिल्‍ली में कविता-पाठ / शिरीष कुमार मौर्य

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प्रिय आयोजक मुझे माफ़ करना
मैं नहीं आ सकता
आदरणीय श्रोतागण ख़ुश रहना
मैं नहीं आ सका

मैं आ भी जाता तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
मैं हिन्‍दी के सीमान्‍तों की कुछ अनगढ़ बातें सुनाता अटपट अन्दाज़ में
मैं वो आवाज़ हूँ जिसके आगे उत्‍तरआधुनिक माइक अकसर भर्रा उठते हैं
आपके लिए अच्‍छा है मेरा न आना

अध्‍यक्ष महोदय अवमानना से बच गए
संचालक महोदय अवहेलना से
न आने के सिवा और मैं कुछ नहीं कर सकता था आपके कविता-पाठ की
अपूर्व सफलता के लिए

तस्‍वीरें दिखाती हैं
कविता-पाठ अत्‍यन्‍त सफल रहा
ख़बरें बताती हैं मँच पर थे कई चाँद-तारे
सभागार भरा था
एक आदमी के बैठने लायक भी जगह नहीं बची थी

आप इसे यूँ समझ लें
कि मैं कवि नहीं
बस वही एक आदमी हूँ जिसके बैठने लायक जगह नहीं बची थी
राजधानी के सभागार में

नहीं आया अच्‍छा हुआ आपके और मेरे लिए
आपका धैर्य भले नहीं थकता
पर मेरे पाँव थक जाते खड़े-खड़े
सत्‍ताओं समक्ष खड़े रहना मैंने कभी सीखा नहीं
लड़ना सीखा है

आप एक लड़ने वाले कवि को बुलाना तो
नहीं ही चाहते होंगे
चाहें तो मेरे न आ पाने पर अपना आभार प्रकट कर सकते हैं
मुझे अच्‍छा लगेगा ।