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मैं बहुत मजबूर आदमी हूँ / शिरीष कुमार मौर्य

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मिले हुए जीवन को सुविधाओं से जीता हुआ मैं बहुत मजबूर आदमी हूँ
यही मेरी मजबूरी है

मेरी मजबूरी सरल नहीं है
मेरे सिरहाने वह आकाश तक खड़ी है
मेरे पैताने बैठी है पाताल तक
मेरी बगल में क्षितिज तक लेटी है
पर यह एक छोटी मजबूरी है

मजबूरियाँ जिन्‍हें कहते हैं वे मेरे दरवाज़े के बाहर खड़ी हैं
वहाँ से न जाने कहाँ-कहाँ तक फैली हैं

चीड़ की कच्‍ची डाल टूटने से मरे लकड़ी तोड़ने वाले की मजबूरी
हम पक्‍के बरामदों में आग तापते हुए अपनी चमड़ी से लील जाते हैं
उधर जिन कच्‍चे घरों को वाकई आग की ज़रूरत है
वे सर्द और नम हवाओं में सील जाते हैं

हमारे घरों में मटर-पनीर की सब्‍ज़ी बच जाती है
असंख्‍य रसोईघरों में बासी रोटियाँ भी खप जाती हैं
मजबूरियाँ जिन्‍हें कहते हैं
वे सरल होती हैं उनसे पार पाना जटिल होता है

अपनी मजबूरी कहते अब शर्म आने लगी है

जैसे इसी कविता के भीतर और बाहर
मैं बहुत मजबूर आदमी नहीं हूँ

यह शीर्षक एक बेशर्म धोखा है
और मैं अपनी मजबूरी में दरअसल एक बेशर्म आदमी हूँ

आदमी की जगह कवि कहता
पर कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है