बहता
काला रक्त है
हरिण-मुखी थिर पाँव
यह द्वापर की
साँझ है
ढलती जाती छाँव ।
लपटें उठतीं
गगन तक
कैसा यह मृग-दाव
इस अन्धे युग के नहीं
सम्भव मिटाने घाव ।
दुर्लभ अपनी बँधुता
दुर्लभ यह प्रासाद
कक्ष-कक्ष में
लाख से
हों सम्बन्ध अगाध ।
प्रजातन्त्र की
द्रौपदी
राजनीति का द्यूत
पौरुष के
अपमान की
गाथा कहते सूत ।
चम्पानगरी-सा छुटा
शिशु-वसु
कब किस तीर
मान-दग्ध
कुरु-भूमि में
हम वैकर्तन वीर ।
अभिनन्दित
क्यों हो नहीं
भीष्म-जयी गाण्डीव
रक्षित
नन्दी-घोष में
ढाल बना है क्लीव ।
रह कोलाहल-घर्षिता
साँध्य काकली
मौन
हुई विवसना श्यामला
अब वंशीधर
कौन ।
कौरवता
इस दौर में
इतनी हुई असीम
दुःशासन के
सामने
बौने अर्जुन-भीम ।
नायक-खलनायक हुए
अब इतने समरूप
लगे
वक़्त का चेहरा
धरे विदूषक रूप ।
रहने दो
अब मत कहो
दया करो हे व्यास !
पिघले
शीशे-सा हुआ
रक्त-सना इतिहास ।