भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुब्ह-ए-इशरत देख कर, शामें ग़रीबां देख कर / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:48, 1 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुब्ह-ए-इशरत देख कर, शाम-ए-गरीबाँ देख कर
मह्व-ए-हैरत हूँ मैं रंग-ए-बज़्म-ए-इम्काँ देख कर

हर क़दम पर इक तक़ाज़ा, हर घड़ी हसरत नई
मैं चला था राह-ओ-रस्म-ए-देह्र आसाँ देख कर

कोई बतलाए कि यह मुश्किल मुहब्बत तो नहीं?
हम परेशाँ हो गए, उन को परिशाँ देख कर!

इस क़दर है ख़ाक से निस्बत मेरी तक़्दीर को
याद आ जाता है घर अपना, बयाबाँ देख कर

उठ गई रस्म-ए-मुहब्बत, सर्द है बाज़ार-ए-इश्क़
दिल तड़पता है मता-ए-ग़म को अर्ज़ां देख कर

ज़िन्दगी गुज़री किसी की आरज़ू करते हुए
और अब हैराँ हूँ मैं यह शहर-ए-वीराँ देख कर

बात क्या है?याद क्यों आता है अंजाम-ए-हयात?
मौसम-ए-गुल देख कर, रंग-ए-बहाराँ देख कर

क्या मिला "सरवर" तुम्हें इस पारसाई के तुफ़ैल?
उस को काफ़िर सोच कर, ख़ुद को मुसलमाँ देख कर!